हिमाचल मोटरसाईकिल यात्रा (कल्पा से चांगो) भाग-03

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हिमाचल मोटरसाईकिल यात्रा का तीसरा दिन और मैं किन्नौर में हूँ। किन्नौर में हिमालय की दो बेहद महत्वपूर्ण श्रृंखलाऐं हैं- जांस्कर और वृहद हिमालय। स्पीति की ओर इसके निचले छोर के पास ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क है और उससे कुछ उपर पिन वैली नेशनल पार्क। भाबा, सांगला, बस्पा, रोपा और चरांग जैसी सुरम्य घाटियां किन्नौर के किसी नगीने से कम नहीं। फिर किन्नौर-कैलाश की चार-पाँच दिनी पैदल परिक्रमा तो होती ही है घुमक्कङों की दिली ख्वाहिश। साहसी ट्रेकर खूब रूख करते हैं इनकी तरफ। किन्नौर की हद भारत और तिब्बत के बीच अंतरराष्ट्रीय सीमा है। किन्नौर के लिये पहले इनर-लाइन परमिट लेना होता था पर अब लगभग सारा किन्नौर (शिपकी-ला, कौरिक जैसे इलाकों को छोङकर) आम भारतीय नागरिकों के लिये बिना परमिट के खुला हुआ है, इस हद तक कि तिब्बत के इलाके तक बिना दूरबीन के साफ दिख जायें। हिन्दुस्तान-तिब्बत रोड (NH-22) के अंतिम छोर “खाब” तक भी आप जा सकते हैं। रिकांगपिओ और कल्पा किन्नौर के दिल हैं और ये एक तरह से दो संस्कृतियों का जंक्शन भी हैं। यहां से काज़ा को बढते हुये इलाका बौद्ध बहुल होने लगता है तो शिमला की ओर बढते हुये हिन्दू बहुल। रिकांगपिओ और कल्पा में हिन्दू और बौद्ध दोनों ही धर्म एक साथ श्वास लेते हैं। आज की सुबह मैं कल्पा में हूँ यानि किन्नौर की खूबसूरती के गढ में। अन्य जगहों की तरह रविन्द्र बार-बार इसका नाम भी भूल जाता था और कल्पा की बजाय कल्पना-कल्पना जपने लगता था। जो वहां नहीं गऐ वो बस कल्पा की सुंदरता की कल्पना ही कर सकते हैं। कल्पा में ताबो जितनी पुरानी पर उससे कम प्रसिद्ध हू-बू-लान-कार मोनेस्ट्री है और नारायण-नागनी मंदिर के रूप में स्थानीय शिल्प-कौशल का नमूना भी है। सेब और आङू के बेइंतहा बाग तो हैं ही। जिधर देखो सेब ही सेब। चिलगोजे और अखरोट भी हैं। दिल्ली से रिकांगपिओ की दूरी साढे पाँच सौ किलोमीटर के लगभग है और दोनों शहरों के बीच सीधी बस सेवा है। रिकांगपिओ से कल्पा दस किलोमीटर भी नहीं है।
आज हमें शिपकी-ला के लिये रिकांगपिओ के डी.सी. साहब से परमिट लेना था। अपने स्तर पर जुटाई गई जानकारी के हिसाब से यह इस यात्रा का कठिनतम साध्य था। इस पर भी तुर्रा ये कि परमिट होने के बावजूद आप शिपकी-ला देख ही लेंगें, इसकी कोई गारंटी नहीं है। आई.टी.बी.पी. वाले रोक लेते हैं। कारण शिपकी-ला का अंतरराष्ट्रीय बॉर्डर पर होना है। सरहद की ड्यूटी पर तैनात जवानों की बात मोङने की सोचना ही बेवकूफी है। डी.सी. कार्यालय से परमिट मिलने की संभावना ही एक प्रतिशत से भी कम होती है तो आप समझ सकते हो कि शिपकी-ला दर्शन की संभावना कितनी बचती है। शाम को रूकने की कोई जगह निर्धारित नहीं थी लेकिन यह तय था कि नाको के आसपास कहीं रूकना है। आज सुबह जल्दी उठे। डी.सी. कार्यालय दस बजे के आसपास काम शुरू करता है। हम उपर कल्पा तक आ ही चुके थे इसलिये और आगे रोघी तक अभी जाने का प्लान बनाया। कमरे से बाहर निकले तो सामने किन्नौर-कैलाश रेंज और इसकी कुछ प्रसिद्ध चोटियां थीं जैसे- जोरकंडेन, शिवलिंग, सरोंग आदि। वाह! क्या नजारा देखा यहां पर सूर्योदय का। किन्नौर-कैलाश के पीछे से धीरे-धीरे चढती सूरज की रश्मियां क्या सम्मोहन पैदा कर रहीं थी कि देखने वाला बस मुजस्सिमा बन कर रह जाये। जोरकंडेन और सरोंग के फोटो आप पिछली पोस्ट में देख ही चुके हैं। इस पोस्ट में शिवलिंग के फोटो दिखायेगें। यह अधोलंब खङी एक चट्टान है जिसकी उंचाई हमें होटल वाले ने करीब 80 फीट बताई थी। कुछ फोटो इस तिलिस्म के लिये और चल पङे रोघी की ओर।

कल्पा से रोघी की ओर जैसे ही चलना आरंभ किया तो साथ में शुरू हो गये सेब के घने पेङ और एक दमदार चढाई। सङक 45 डिग्री के कोण से ज्यादा ही होगी। पहले गियर की फुल थ्रोटल में भी बाईक नहीं चढ पाई और घरघरा कर बंद हो गई। आखि़रकार रविन्द्र को उतारकर कहना पङा कि आगे जाकर देख आये। अगर सङक आगे तक ऐसी ही मिली तो रोघी रद्द। उसके उतरने के बाद बाईक को ढलान पर थोङी पीछे लिया और फिर से स्टार्ट किया। तभी एक स्कूली बच्चा आता दिखा। उससे पूछने पर पता लगा कि यह चढाई थोङी आगे तक ही है, उसके बाद सामान्य है। बाईक के कान ऐंठे तो अबकी बार पहले गियर में चढ गई। थोङी दूर के बाद जब सङक सामान्य चढाई वाली हो गई तो रविन्द्र के इंतजार में रूक गया। वो पीछे हांफता हुआ आ रहा था। पास आया तो हालत ऐसी हो रखी थी कि जैसे दमे की बीमारी हो और प्राण अब निकलें कि तब निकलें। मेरी हंसी छूट गई। हालांकि इसके बाद खूब सेब तोङे और खाये गये। कुछ बैग में भी डाल लिये। कल्पा से निकलने के बाद जगंल शुरू हो गया। बहुत घना तो नहीं था पर थोङा सुनसान सा था। हालांकि ये वीरानी जल्द ही खत्म हो गई और लोगबाग आते-जाते दिखने लगे। केवल दस मिनट के अंतराल में दो बसें भी रोघी की ओर जाती दिखीं यानि सार्वजनिक परिवहन की अच्छी कनेक्टीविटी है। रोघी में विशेष तौर पर देखने के लिये तो कुछ नहीं है लेकिन कल्पा आने वाले कुछ लोग प्राकृतिक सुषमा का मजा लूटने के लिये रोघी की तरफ रूख कर लेते हैं। कल्पा-रोघी रोड पर एक जगह है- सुसाइड प्वाइंट। 3000 मीटर की उंचाई से ठीक नीचे 1950 मीटर पर स्थित पोवारी दिखता है यानि 3000 फीट से भी ज्यादा गहरी खाई है। उससे भी कहीं नीचे बहती सतलुज भी दिखती है। यहां हल्की सी भी असावधानी का अर्थ है शर्तिया मौत। अगर गिरे तो शरीर का पूरा अस्थि-पिंजर बिखर जायेगा और हड्डियां तक चुगने में नहीं आयेंगीं। फिर दूसरी ओर सिर के उपर झुका हुआ पहाङ और उसके ढीले पत्थर। ये वाकई बहुत खतरनाक जगह है। रूकना मुनासिब तो नहीं था पर यहां रूककर सेब खाये। सामने रोघी साफ दिख रहा था। यहीं से उसके फोटो लिये और वापस हो लिये।

रोघी से रिकांगपिओ की वापसी में फिर से कुछ सेब व आङू तोङे और सीधे पहुँचे रिकांगपिओ। यहां मुख्य चौराहे के पास ही मिनी सचिवालय है जहां परमिट देने वाले अधिकारी बैठते हैं। अभी नौ बजे हैं यानि पूरा एक घंटा है। अंदर बेंच और कुर्सी लगी हैं, जाकर बैठ गये। कुछ देर बाद धीरे-धीरे कर्मचारी आना शुरू होते हैं। साढ नौ बजे एक कर्मचारी ने हमारे वहां बैठे होने का कारण पूछा तो हमने बता दिया कि शिपकी-ला के परमिट के लिये बैठे हैं।
>    वहां का परमिट नहीं मिलेगा।
>>    माफ कीजिऐ, पर क्यों नहीं मिलेगा?
>    बॉर्डर है, इसलिऐ आम नागरिकों को वहां के परमिट नहीं दिये जाते।
>>    लेकिन जनाब, मैंनें पता लगाया है कि वहां आम लोग भी जा चुके हैं। मैं खामखां ही उम्मीद लगा कर नहीं आया हूँ।
>    देखिये पहले एकाध लोगों को जरूर परमिट मिले हैं। जब डी. सी. साहब ने नया कार्यभार संभाला था। पर अब तो इसका सवाल ही पैदा नहीं होता। ऐसा भी हुआ है कि अधिकारी ने परमिट यहां से तो जारी कर दिया पर उधर आई.टी.बी.पी. वालों ने रोक लिया।
>>    क्या आप हमारी कुछ मदद कर सकते हैं?
>    इस मामले में कोई गुंजाईश नहीं है। फिर भी अगर आप समय खराब करना चाहते हैं तो सामने टूरिस्ट इंफॉर्मेशन सेंटर है। आप वहां प्रकियाओं की तसल्ली कर लीजिये।

टूरिस्ट इंफॉर्मेशन सेंटर में पहुँचे तो सरकारी शटर तो बंद था पर निजी टूर ऑपरेटरों ने अपनी दुकान सजा ली थी। हमें देखते ही वो हमारी ओर लपके। इन्हें घुमने आये लोगों की महक आ जाती है क्या? मैंने भी येन-केन-प्रकारेण अपना प्रयोजन सिद्ध करने की सोच ली।
>    कहिये सर, कैसे हैं आप?
>>    अच्छे हैं जी।
>    आप इधर घुमने आये हैं क्या?
>>    हां जी।
>    बहुत अच्छा। कहां घुमना चाहेंगें आप? हम लाईसेंस-प्राप्त टूर ऑपरेटर हैं और सेवा में शिकायत का मौका नहीं देते।
>>    क्या वाकई? खैर वो तो हम देख ही रहें हैं कि आप बिल्कुल सरकारी टी.आई.सी. के बरारबर में विराजमान हैं। हम एक जगह जाना चाहते हैं। क्या आप हमारी कुछ मदद कर सकते है?

अंधा क्या मांगे? दो आंखें। उसकी तो मन की मुराद पूरी हो गई। खुश हो गया कि चिङिया जाल में फंस रही है। जब उसने हमारे इच्छित गंतव्य के बारे में पूछा तो रविन्द्र ने कहा- छिपकली। वो उलझकर रह गया कि हिमाचल में ये कौन-सी जगह आ गई। मैंने पहले भी बताया है कि रविन्द्र को जगहों के नाम याद नहीं रहते थे और वो कुछ भी उल्टा-पुल्टा बोल देता था। जैसे पिंजौर को पींजरा, नारकंडा को नारखंड, वांगतू को बांगङू, कल्पा को कल्पना, काज़ा को काजीपुर, कुल्लू को कन्नू और अब शिपकी-ला को छिपकली। वो बेचारा टूर ऑपरेटर इससे पहले कि सोच-सोच कर अपने बालों को पूरी तरह नोंच डालता, मैंने उसे बताया कि इन भाई साहब के कहने का मतलब है- शिपकी-ला। सुनते ही उसे जैसे बिजली का कंरट लगा। तुंरत दो कदम पीछे हो गया और कहने लगा कि वहां जाने की परमिशन ही नहीं मिलेगी। हमने कहा कि आप कोशिश तो करके देखिये, जो खर्च आये वो हमें बता दीजिये। उसने कहा कि खर्च की बात नहीं है। हमारा तो काम ही यही है। लेकिन जो काम नहीं होने वाला, उसके पीछे वक्त खराब क्यों करें? फिर उसने भी लगभग वही सब कहा जो उस सरकारी कर्मचारी ने कहा था। उसके बाद हमने और भी कोशिश की पर कोई फायदा नहीं हुआ। समय लगातार बीत रहा था। दस से उपर का वक्त हो गया था। पिओ में और ज्यादा रूकना केवल वक्त की बरबादी थी। ऐसे तो चाहे दिनभर इधर से उधर चक्कर काटते रहिये। कोई फायदा ना होता देखकर परमिट की बात दिमाग़ से निकाल दी और आगे बढने के लिये मोटरसाईकिल को किक लगा दी। जब पिओ टी.आई.सी. से निकल रहे थे तो एक विदेशी महिला देखी। बङी लंबी-चौङी और गोरी-चिट्टी। किसी आम पलंग पर लेट जाये तो जगह बाकी न बचे। भीमकाय और कसी हुई कद-काठी की।

रिकांगपिओ से पूह: कल नारकंडा से निकलते-निकलते दस से ज्यादा का वक्त हो गया था। जब हिंदुस्तान-तिब्बत रोड पर आगे बढने के लिये पिओ से उतरकर पोवारी वापस आये तो आज भी साढे दस बज गये थे। दो दिन में औसतन छह घंटे का समय खराब कर दिया था। इसकी क्षतिपूर्ति के लिये अब हमें न सिर्फ़ आराम के लिये कम से कम रूकना था बल्कि फोटो लेने के लिये भी बार-बार नहीं रूक सकते थे। लगातार लेट होते जाने में अब रोड भी ज्यादा भूमिका निभाने लगा था। चालीस किलोमीटर दूर स्पीलो में जब चाय के लिये रूके तो साढे बारह बज गये थे। पिओ से स्पीलो तक लगभग 40 किलोमीटर नापने में दो घंटे लगे। वो भी तब जबकि अक्पा पुल के पास लगभग 10 किलोमीटर सङक ठीक-ठाक मिल गई थी। अक्पा से कुछ पहले आज भी पुरानी हिंदुस्तान-तिब्बत सङक के अवशेष सतलुज के उस पार देखने को मिलते हैं जो वर्तमान सङक से कुछ उंचाई पर हैं। इन्हीं अवशेषों के पास पहला चेतावनी-पट्ट लगा मिलता है कि आप संसार की सबसे दुर्गम सङक पर चल रहे हैं। इसके बाद ये चेतावनी-पट्ट लगातार मिलते रहते हैं- पहले सतलुज घाटी में, फिर स्पीति घाटी में और फिर चन्द्रा घाटी में भी। ये बिल्कुल नये लगाये गये चेतावनी-पट्ट हैं, पुराने नहीं हैं। निश्चित रूप से इन पर कोई अतिश्योक्ति भी नहीं लिखी हुई है। NH-05 का पहाङी कवरेज अच्छे-अच्छों का कलेजा हिला सकता है। स्पीलो छोटा सा गांव है। यहां चाय पीने के वास्ते रूके। मीठी कङक चाय पी। स्पीलो के बाद सङक बिल्कुल खंडहर हुई पङी है। इसके बाद जो पहाङ शुरू होते हैं वैसे बंजर और फटेहाल पहाङ इस पूरे रोड पर पहले कहीं नहीं हैं बल्कि पूरी सतलुज घाटी में ही नहीं हैं। सतलुज के पानी और समय के पहिये की सबसे बुरी मार स्पीलो और पूह के बीच के पहाङों पर ही देखने को मिलती है। स्पीलो से काफी आगे सतलुज की एक सहायक नदी पर पुल बना है जिसे पार करते ही आप एक तिराहे पर होते हैं। बायां मार्ग रोपा घाटी को चला जाता है और दायां मुख्य NH-22 है ही जो पूह की ओर चला जाता है। रोपा और पूह यहां से एक समान दूरी पर हैं यानि सोलह-सोलह किलोमीटर। एक बार फिर से पूह के पास अच्छी सङक मिलती है जो जल्द ही खत्म हो जाती है। पूह में एक गोंपा भी है। मैं वहां जाना चाहता था पर समय की कमी आङे आ गई। फिर भी पूह अगर मुख्य मार्ग पर होता तो वहां जरूर जाता। लेकिन पिओ की तरह पूह जाने के लिये भी मुख्य मार्ग छोङकर एक अन्य संपर्क मार्ग पर उपर की ओर चढना होता है। पूह के बाद सङक लगातार बदतर होती गई। उबङ-खाबङ रास्ते पर लगातार हिचकोले खाते हुये हम आगे बढते रहे।

पूह से शिपकी-ला: डबलिंग के बाद मुख्य मार्ग पर गांव तक दिखने बंद हो गये। आदमजात के रूप में अगर कोई दिखता था तो इक्का-दुक्का बगल से गुजरती गाङियां या फिर कहीं-कहीं दिखते बी.आर.ओ. के मजदूर। एक आश्चर्य की बात और देखी। इस दूर-दराज के इलाके में जहां रोज़गार के साधन नहीं हैं वहां सङक पर काम करने वाली श्रम-शक्ति के रूप में स्थानीय लोग बिल्कुल नहीं दिखते। इसके बजाय वे अपने परपंरागत आजीविका साधनों में ही लीन रहते हैं, जैसे- पशुपालन। पूरे NH-22 और NH-05 पर श्रम-शक्ति बंगाली, झारखंडी या बिहारी ही है। यहां तक कि चांगो जैसे गांव के मुश्किल से चलने वाले होटलों में भी, जहां पर्यटक रूके हुये एक-एक महीना बीत जाता है। चलते-चलते एक बोर्ड के पास पहुँचे- लिखा था शिपकी-ला 41 किलोमीटर। शिपकी-ला के लिये इश्क फिर से हिलोर मारने लगा। सोचता रहा, चलता रहा। और फिर आया वो तिराहा जहां सङक सीधी जाती है स्पीति के लिये और NH-22 खाब के लिये उपर पहाङ पर चढ जाता है। यहां लिखा था शिपकी-ला 31 किलोमीटर। फिर वहीं खाब द्वार से एक सङक शिपकी-ला के लिये चली जाती है। दिल में एक साथ दो तरंगों ने उछाल मारी। पहली 460 किलोमीटर लंबे हिंदुस्तान-तिब्बत रोड को खत्म करने की, ठीक वैसे जैसे 2010 में NH-108 को किया था। किसी नेशनल हाईवे (राष्ट्रीय राजमार्ग) को पूरा नाप डालने का भी एक अलग ही मजा होता है, सच में। हिंदुस्तान-तिब्बत रोड हरियाणा के अंबाला से शुरू होता है और हिमाचल प्रदेश के खाब में खत्म होता है। आज इसे पूरा नाप डालूंगा, बङे दिनों से मेरी टारगेट-लिस्ट में शामिल था। पुरानी नंबरिंग के हिसाब से इसे NH-22 कहते हैं पर नई प्रणाली के अनुसार आगे से इसे NH-05 के रूप में जाना जायेगा। दूसरी तरंग थी शिपकी-ला की। क्या पता आई.टी.बी.पी. वाले हमारी प्रार्थना स्वीकार कर लें और हमें वतन-ए-हिन्दोस्तान की सरहद देख लेने दें। आखिर हैं तो वे भी हमारी तरह हिन्दुस्तानी ही। मैंनें रविन्द्र की सलाह ली। वो भी तैयार था। एक नये जोश से भरकर उपर जाती सङक पर जा चढे। अनेक हेयरपिन मोङों को पार करते हुये पहले खाब गये और हिंदुस्तान-तिब्बत रोड का सफर पूरा किया। फिर चले शिपकी-ला की ओर। इस रास्ते पर नामगिया से कुछ दूर सेना के कैंप तक ही पहुँचे थे कि एक सैनिक ने रोक लिया। उसने पूछा कि कहां जा रहे हैं आप लोग?
- कहीं नहीं जनाब, दिल्ली से आपके दर्शन करने चले आये।
सैनिक हंसने लगा। और फिर बातों का सिलसिला चल निकला। फिर बाद में हमने बताया कि हम शिपकी-ला देखना चाहते हैं। सैनिक ने साफ मना कर दिया कि वहां जाने की इजाजत आम नागरिकों को नहीं है। कुछ देर फिर से बातें हुईं और इन्हीं बातों के दौरान शिपकी-ला दर्शन का मंत्र मुझे मिल गया। अब एक बार फिर से इधर आना होगा शिपकी-ला के लिये। लेकिन कोई बात नहीं- दर पे रुसवा करके तूने सौ बार बुलाया, तो मैं सौ बार आया। इस सोच के साथ कदम वापस मोङ दिये।

हम शिपकी-ला नहीं जा सके पर इतनी उपर तक चढना बेकार नहीं गया। उस सैनिक से कुछ खास बातें पता चलीं। पहली तो ये कि हम बॉर्डर से मात्र 15-20 किलोमीटर दूर थे। दूसरी बात कि ये अंदाजा हो गया कि सतलुज भारत में कहां से प्रवेश करती है। कुछ अंग्रेजी ब्लॉग्स इसके बारे में गलत जानकारियां प्रकाशित कर रहे हैं लेकिन इस ब्लॉग के जरिये मैं आपको सही जगह दिखाने की कोशिश करूंगा। तीसरी बात पहाङों की चोटियों के बारे में पता चली। हमने देखा कि कौन सी चोटियां भारत में है और कौन सी तिब्बत में। ये चीजें मैं फोटो के द्वारा दिखाउंगा और चूंकि ये सीमा के पास तैनात सैनिक की अनुमति से शूट किये गये हैं इसलिये इन की असलियत पर भरोसा किया जा सकता है।

खाब से संगम (Confluence of Spiti and Sutlej): हम सतलुज घाटी में वापस नीचे उतर आये और नाको की ओर चल दिये। थोङा ही चले थे कि एक पुल आ गया। मैंनें देखते ही इसे पहचान लिया। इसी पुल के बारे में कुछ वेबसाइटों पर भ्रांति है कि सतलुज यहां से भारत में प्रवेश करती है। जबकि असल में यह पुल खाब का वो इलाका है जहां सतलुज और स्पीति का संगम होता है। असलियत में सतलुज इससे पहले ही भारत में प्रवेश करके 20 या 25 किलोमीटर बह चुकी होती है। जैसा कि हमने उपर शिपकी-ला की चढाई के दौरान देखा था, यहां से भी तिब्बत की चोटियां दिखती हैं। उन्हीं चोटियों के आसपास से सतलुज भारत में प्रवेश करती है। अब हम NH-05 पर हैं और सामने स्पीति घाटी दिख रही है।

संगम से नाको: अब सतलुज की उंगली छोङकर स्पीति के दामन में रहना होगा। स्पीति घाटी की शुरूआत ही डरावनी है। सङक एकदम निगल जाने के लिये झुके हुये पहाङ। लेकिन राहत की बात ये कि अब कोलतार वाली अच्छी सङक पर चलना है। पुल पार करते ही स्पीति घाटी में घुस गये और चढाई फिर से शुरू हो गई। इसी के साथ खरङ-खरङ की आवाज के साथ मोटरसाईकिल का चेन-सेट जवाब दे गया और बाईक ने आगे बढने से मना कर दिया। लीजिये कर दिया स्पीति ने स्वागत। मैं काफी पीछे से सोचता आ रहा था कि ऐसे बीहङ में किसी भी तरह की मानवीय या तकनीकी गङबङी बङी समस्या को जन्म दे सकती है। इसलिये और भी ज्यादा संभल कर राईड कर रहा था फिर भी वही बात होकर रही। फौरन बाईक को आराम दिया। कुछ देर बाद फिर से किक लगाई और रविन्द्र के बगैर ही गियर लगाया। फिर से खरङ-खरङ की आवाज, लेकिन आखिरकार सिंगल सवारी में बाईक चल पङी। अब इशारा साफ था कि मैं बाईक चलाते हुये आगे बढूं और रविन्द्र तब तक पैदल ही चले जब तक चढाई खत्म होकर सही रोड ना आ जाये। मैं चल पङा और मेरे साथी की ट्रेकिंग शुरू हो गई। मैं ज्यादा आगे भी नहीं जा सकता था क्योंकि रविन्द्र को जगहों के नाम याद नहीं रहते थे और अगर वो गुम हो जाता तो बहुत बङी मुश्किल खङी हो जाती। स्पीलो के बाद से ही हम मोबाईल नेटवर्क से बाहर थे, इसलिये हर समय उसे नजर में रखना जरूरी था। कुछ देर चलने के बाद रविन्द्र भी जवाब दे गया और फिर से बाईक की जिम्मेदारियां बढ गईं। अब का-जिग लूप शुरू होने वाले थे जो 5-6 किलोमीटर में ही लगभग एक हजार फीट की उंचाई पर पहुँचा देते हैं। बाईक पहले ही जवाब दे चुकी थी लेकिन सिवाय उस पर सवार होने के कोई चारा भी नहीं था। रविन्द्र मेरी जगह बैठा और मैं बिल्कुल टंकी पर ताकि पिछले पहिये पर दबाव कम से कम पङे। लगातार दूसरे गियर में चलते रहे। फिर काजिंग पार करके एक जगह बाईक रोक दी। वो मशीन थी और अपनी परेशानियां चीख-चीख कर बताने वाली नहीं थी, वो तो राईडर को खुद ही समझनी होंगीं। यदि वो बिल्कुल बैठ गई तो फिर लेने के देने पङ जाने वाले थे। नाको से 12 किलोमीटर पहले समदू जाने वाली एक बस ने हमें ओवरटेक किया था लेकिन तब हम उससे मदद लेने से चूक गये थे। अभी उस जगह से ज्यादा आगे नहीं आये हैं। इस एरिया में नाको एक महत्वपूर्ण स्टॉप है और बस के वहां पर कुछ देर रूकने की पूरी संभावना थी। अभी पाँच बजे हैं, यदि किसी तरह हम जल्दी से नाको पहुँच जायें तो और भी आगे तक जा सकते हैं। क्या पता किन्नौर आज ही पार हो जाये? किस्मत ने साथ दिया और कुछ आगे जाकर एक ऑल्टो कार वाले ने रविन्द्र को नाको तक लिफ्ट दे दी। अब मैं अपनी बाईक के साथ अकेला था। सामने रोड अच्छी कंडीशन में दिख रहा था और मैं फौरन कार के पीछे हो लिया। जब नाको पहुँचा तो उसी कार को खङा पाया हालांकि रविन्द्र और कार-मालिक कहीं नहीं थे। अब रविन्द्र को ढुंढना था और वो आगे सङक पर ही खङा मिल गया। बस भी वहीं खङी मिल गई। पहले इस बात की तसल्ली करी कि आगे कहां पर रात को रूकने का ठिकाना मिल सकता है। कुछ पंजाबी युवक, जो काम के सिलसिले में उसी एरिया में रहते थे, उन्होंने बताया कि नाको से भी अच्छा प्रबंध तो चांगो में है। वे हैरान रह गये कि दो आदमी 125 सीसी की बाईक लेकर इतने दुर्गम इलाके में कैसे आ पहुँचे। खैर रविन्द्र को अच्छी तरह समझाया कि कहां पर उतरना है। उसे बस में बिठाया और मैं आगे चल दिया।

नाको से चांगो (मलिंग नाला): एक बार फिर मैं अपनी बाईक के साथ अकेला था और अब मुझे केवल मलिंग का डर था। अगर वो पार हो गया तो फिर चांगो आराम से पहुँच सकता था। पाँचेक किलोमीटर चलते ही मलिंग-दर्शन हो गये। एक बार तो सिर पकङ लिया कि ये पार हो जायेगा कि नहीं। नाको के बस स्टॉप पर मुझे सचेत भी किया गया था कि इसे सावधानी से पार करूं। मलिंग नाला नामक जगह बेहद खतरनाक है। ये कोई नाला-भर भी नहीं है कि गर्रर्रर्र से बाईक को भगा कर पार कर लिया है। काफी चलना होता है। सङक नाम की कोई चीज नहीं है। सङक बनाने का कोई औचित्य भी नहीं यहां। पहाङ से पत्थर और बङी चट्टानें झरते रहते हैं। गुजरने वाले राहगीर का एक पल का भी भरोसा नहीं कि कब उपर से पहाङ टूट पङे और रौंदता-घसीटता हुआ नीचे खाईयों में ले जाये। तिस पर चढाई भी है और उंचाई भी। मलिंग नाला क्षेत्र में प्रवेश करते ही बाईक जवाब दे गई। अब चेन-सेट मुझ अकेले का वजन तक नहीं झेल रहा था। बाईक से नीचे उतरा, पहले गियर में रेस देते हुये धक्का लगा कर चढाने लगा। मलिंग नाला पार करने में ऐसा दो-तीन बार करना पङा। जब उस खतरनाक लैंड-स्लाईड एरिया से निकला तो पिंडलियां कांप रहीं थीं। कुछ डर के मारे और कुछ मोटरसाईकिल को खींच कर चढाने की वजह से लगी मेहनत के कारण। सांस लेने का वक्त नहीं था। पीछे से बस आ रही थी और मैं उससे आगे बने रहना चाहता था। रोड से फिर ठीक हो गया और अब ढलान भी थी। जब बस ने मुझे पीछे छोङा तो चांगो लगभग पाँच किलोमीटर रह गया था और सङक फिर से खत्म हो गई थी।

चांगो छोटा सा गांव है और रविन्द्र मुझे सङक पर बने पुल पर ही खङा मिला। यहां एक मैकेनिक की दुकान थी। चेन-सेट तो नहीं मिला पर चेन को अच्छे से कसवा लिया। अगर यही काम रामपुर में चाय-ब्रेड भक्षण की जगह करा लिया होता तो अब इतनी दुर्गति नहीं होती। एक कामचलाऊ होटल में कमरा मिल गया। खाने के लिये पूछा तो केवल मोमोज, थुकपा और राजमा-चावल ही थे। दुसरी जगह पर ढुंढा तो आधे घंटे के इंतजार के बाद बेस्वाद राजमा और पपङी जैसी चार-चार रोटियां मिल गईं। रविन्द्र ने चावल भी ले लिये क्योंकि कल उसका शनिवार का उपवास होने वाला है और आज भरपेट खाना लाज़मी है। होटल के रजिस्टर में देखा था कि हमसे पहले यहां आखिरी बार कोई एक अगस्त को रूका था और आज 18 सितंबर है। आपको अवश्य अदांजा हो गया होगा कि यह कितना सुदूर और दुर्गम इलाका है। ये किन्नौर का आखिरी छोर है। आज डेढ सौ किलोमीटर से ज्यादा बाईक चलाई और लगभग नौ घंटे सफर किया।
Morning in Kalpa, Himachal
कल्पा में सूर्योदय। बिल्कुल दायें सरोंग और बायें सूरज की सबसे निचली रश्मि के उपर शिवलिंग चोटी।
Shivling Peak, Kinnaur Kailash
शिवलिंग चोटी
Sarong Peak, Kinnaur Kailash, Kalpa
पीछे किन्नौर-कैलाश और सामने नारायण-नागनी मदिंर की चोटी
Towards Roghi, Himachal
किन्नौर-कैलाश रेंज।
Apple Trees, Roghi
सेब के बाग

Apple Trees in Kalpa
लाल सेब
Green Apple, Kalpa
हरे सेब

Pet Dogs Kalpa

Kalpa Hotel

Narayan Nagni Temple, Kalpa, Himachal
जाटराम, फिर नारायण-नागनी मदिंर और पीछे किन्नौर-कैलाश रेंज

Hotel Kalpa
कल्पा में हमारा कमरा

Roghi, Himachal
सामने दिखता रोघी गांव
Suicide Point, Roghi
सुसाइड प्वाइंट
Suicide Point, Kalpa
सुसाइड प्वाइंट से 3000 फीट से भी नीचे दिखती सतलुज।
View Of Kalpa, Himachal
कल्पा

Kinnaur Kailash from Reckong Peo
रिकांगपिओ से किन्नौर-कैलाश का नजारा

Kinnaur Kailash, Reckong Peo, Himachal
रिकांगपिओ से किन्नौर-कैलाश का नजारा

Big Waterfall on NH22, Reckong Peo
NH 22

NH 22 Road Status

River Satluj

Land Slide On NH 22
अपने सामने लैंड-स्लाइड होता देखते हुये

NH 22 Road Condition Beyond Reckong Peo

National Highway 22

Kharo Bridge, Himachal
खारो पुल

World’s Most Treacherous Road, NH 05
BRO के अनुसार विश्व की दुर्गमतम सङक

Aprikot Tree, Himachal
कच्चे अखरोट

NH 22 Himachal Pradesh

Sutlej River and NH 22

NH 22 Road Condition

Ropa Valley, Himachal

Ropa Valley T- Point

Himachal Mountains NH 22

Tinku Nallah Glacier Point
टिंकू नाला (ग्लेशियर स्थल)

Shipki-La Road

Shipki-La, Himachal
View of Spiti from Sutlej
सतलुज घाटी से स्पीति घाटी में दिखती एक बर्फीली पर्वत चोटी।

Khab Gate
खत्म हुआ हिंदुस्तान-तिब्बत रोड
Namgia Road, Himachal
नीचे नामगिया की ओर तथा उपर शिपकी-ला की ओर।
Manjeet with Armymen
कुछ आगे सेना ने रोक लिया
Khab Bridge NH 05
दूर दिखता स्पीति और सतलुज संगम
Confluence of Spiti and Sutlej
चलिये थोङा पास चलें
Confluence of Spiti and Sutlej
थोङा और (बैकग्राउंड में सङक)
Confluence of Spiti and Sutlej
उपर स्पीति और इधर सतलुज
Confluence of Spiti and Sutlej
इस पुल के बारे में कहा जाता है कि यहां से सतलुज भारत में प्रवेश करती है जबकि असल में वो जगह पीछे है। जिस चोटी पर बर्फ है वो भारत में है। उसी श्रृंखला में सबसे पीछे वाली चोटियां तिब्बत में हैं यानि सीमा अधिक दूर नहीं है। पुल से बॉर्डर की ओर जाती एक अलग सङक।
Indo-Tibetan Border
अब दिखी वो बर्फीली चोटी। यह भारत में है।
Spiti Valley Himachal
स्पीति घाटी

Nako Village

Chango Village
चांगो के पास पहाङ पर उतरता सोना
अगले भाग में जारी, यहां क्लिक करें
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1. हिमाचल मोटरसाईकिल यात्रा (दिल्ली से नारकंडा) भाग-01
2. हिमाचल मोटरसाईकिल यात्रा (नारकंडा से कल्पा) भाग-02
3. हिमाचल मोटरसाईकिल यात्रा (कल्पा से चांगो) भाग-03
4. हिमाचल मोटरसाईकिल यात्रा (चांगो से लोसर) भाग-04
5. हिमाचल मोटरसाईकिल यात्रा (लोसर से कुल्लू) भाग-05
6. हिमाचल मोटरसाईकिल यात्रा (कुल्लू से दिल्ली) भाग-06
7. स्पीति टूर गाईड
8. स्पीति जाने के लिये मार्गदर्शिका (वाया शिमला-किन्नौर)
9. स्पीति जाने के लिये मार्गदर्शिका (वाया मनाली)

3 टिप्पणियाँ

  1. मेरा भी इस रुट पर यात्रा करने का मन है।जल्दी ही में भी इस रुट को नापुंगा ।
    अापके बलाग के माध्यम से बहुत सारी जानकारी प्राप्त हुई।काफी जबरदस्त फोटोग्राफी।

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    1. धन्यवाद सचिन जी,
      आपको जरुर जाईये और अपना यात्रा-वृतांत भी शेयर करें।

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  2. वाह... मजा आ गया मंजीत भाई। बेहद शानदार।

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