मेघालय में नारी-सशक्तिकरण

नारी-उत्थान, स्त्री-शक्ति आदि बहुत से शब्द हैं जो किताबों, पत्र-पत्रिकाओं और अख़बारों की शोभा बढाते हैं। जनमानस, विशेषकर औरतों, को उद्दवेलित करने के लिऐ नेता लोग तो ऐसे शब्दों को अपनी जुबान पर धरे रखते हैं। बङे-बङे सेमिनार और सभाऐं आयोजित की जाती हैं स्त्री-शक्ति विषय पर। रटे-रटाये भाषण दोहराऐ जाते हैं, कुछ घिसे-पिटे उदाहरण भी दिये जाते हैं पर आखि़र में लजीज़ व्यंजनों का मजा लेकर कागज के नैपकिनों की तरह स्त्री-शक्ति को भी कूङेदान के हवाले करके चलते बनते हैं। कहा ये भी जाता है कि औरतों की समझदानी छोटी होती है। समाज-व्यवहार की बातों को औरत भला क्या जाने? वे घर में ही ठीक हैं और घर की चहारदीवारी के बाहर उनका कोई काम भी नहीं है। ऐसी स्थिति में घर और जेल में कोई अंतर नहीं रह जाता। पर चारदीवारियों की उस घुटन से मर्दवा को क्या फर्क, क्योंकि उन्हें तो दुनिया चलानी होती है। वही दुनिया जो उस नारी की कोख से ही जन्म लेती है और मर्द जिसे चलाने के ठेकेदार बने फिरते हैं। कट्टर इस्लामिक राष्ट्रों में तो औरतें किसी जरुरी काम से बाहर निकलें भी तो चोटी से पंजों तक का भारी लबादा ओढकर ही निकल पाती हैं। खुली हवा में सांस लेना तो जैसे उन अभागिनों को मयस्सर ही नहीं हैं। मर्द उस घुटन का अंदाजा तक नहीं लगा सकते जिसमें घुटते-घुटते इन बुरकाधारिनों की जिंदगी बीत जाती है। लगायें भी तो कैसे? शुरू से ही वे अपनी मांओं, बहनों और अन्यों को बेजान चीज़ की तरह ट्रीट होता देखकर बङे होते हैं और अंततः खुद भी जुल्मी बन जाते हैं। कोख की कैद से निकलते ही पीहर की कैद, फिर ससुराल की कैद और अंत में कब्र की कैद। जिंदगी शुरू होने से पहले शुरू होती है कैद और मरने के बाद भी पीछा नहीं छोङती।

महात्मा गांधी कहते थे कि असली भारत गांवों में बसता है। यह बात आज भी बिल्कुल सच है। महानगर और मंझोले शहर भले ही आधुनिक हो रहे हों पर गांव आज भी हिंदुस्तान की धङकन हैं। इन गांवों में जाकर स्त्री-शक्ति के दर्शन भली-भांति हो जाते हैं। आज भी चूल्हे-चौके और बच्चों में उलझी हुई नारी ही नजर आती है। ये हाल तो खुद राजधानी से सटे गांवों का है। दिल्ली से जैसे-जैसे दूर हटते जाते हैं हकीकत की कलई खुद-ब-खुद खुलती जाती है। हां ये बात भी सच है कि हालात अब धीरे-धीरे सुधर रहे हैं। लेकिन सदियों पहले का सुधार अगर देखना हो तो पूर्वोत्तर भारत के मेघालय में पहुँच जाइये जहां नारी सशक्तीकरण ज्वलंत रूप में देखने को मिलेगा। जी हां वही पूर्वोत्तर भारत जिसे आदिवासियों और जंगलियों की धरती माना जाता है। यहां का समाज वाकई नारी-प्रधान है, आज से नहीं बल्कि बरसों-बरस पहले से। शेष भारत में जो स्थान पुरूष को हासिल है वही स्थान मेघालय में औरत को हासिल है। परिवार की मुखिया स्त्री होती है। जिस प्रकार शेष भारत में शक्ति, संपदा और ओहदे का उत्तराधिकारी घर का बङा बेटा होता है उसी तरह मेघालय में बङी बेटी होती है। पुरूष प्रायः घर के काम करते हैं और स्त्रीयां समाज की ठेकेदारनी होती हैं। वे कमाई करती हैं और वो बैठकर खाते हैं। इस गजब व्यवसथा का प्रत्यक्ष प्रमाण मुझे कैसे देखने को मिला, चलिये आपको बताता हूँ।

रामफल, मेरे मामा जी, जोकि व्यवसाय के सिलसिले में पूर्वोत्तर भारत में काफी सक्रिय रहे हैं, की कृपा से ही मैं ऐसी व्यवसथा से रु-ब-रु हो सका। दरअसल शुरुआत से ही मेरे ननिहाल वालों का ट्रांसपोर्ट का कारोबार रहा है। वे लोग ट्रकों में माल भरते और पूर्वोत्तर भारत में सप्लाई करते। फिर वहीं पर कई-कई महीनों तक स्थानीय जगहों पर भी माल की ढुलाई करते और जब दिल्ली की ओर वापस लौटते तो वहां का माल इधर के इलाकों में सप्लाई करते। इसी क्रम में पूर्वोत्तर में उनके बहुत सारे लोगों और लुगाईयों से लिंक बन गये, खासतौर पर असम और मेघालय में। तो वे बताया भी करते थे कि मेघालय में समाज नारी-प्रधान है। मेघालय में उनकी जान-पहचान की एक स्त्री थी जो दिल्ली घुमना चाहती थी। मामाजी ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और साथ के साथ मेरे पिताजी को भी राजी कर लिया कि इस दिल्ली-दर्शन के दौरान वे उनकी मदद करें। चूंकि मेरे पिताजी दिल्ली पुलिस में सेवारत हैं तो उनके साथ होने से काफी सहूलियत भी रहती। फिर एक शाम मामाजी उस स्त्री और उसके पतिदेव के साथ हमारे घर बराही आ गऐ। उन्हें अगले दिन दिल्ली भ्रमण के लिऐ निकलना था, तो हमारे पास एक पूरी रात थी उन से बतियाने के लिऐ। स्त्री का नाम था- कोंग। उसके पति का नाम अब याद नहीं है। उनके आने के बाद मुझे महसूस होने लगा कि उन्हें हिंदी नहीं आती। यद्यपि मैं पूरी तरह शुद्ध हिंदी बोल रहा था पर फिर भी उनके पल्ले कुछ नहीं पङ रहा था। ना ही उनकी चाऊ-चियांग मेरे पल्ले पङ रही थी। खूब कोशिश करी पर बात नहीं चल सकी। हैरत की बात थी कि मामाजी ने उनसे बखूबी बात कर रहे थे हालांकि वो हिंदी के साथ-साथ कोई और जबान भी मिक्स कर रहे थे। शायद उनकी कोई स्थानीय बोली। कोई और चारा न पाकर अंग्रेजी से काम चलाने की सोची। अंग्रेजी मे तो माहिर लग रहे थे वे लोग या कहें कि केवल लुगाई। पतिदेव उसी तरह सकुचाऐ से बैठे थे जैसे उत्तर भारतीय पत्नियां बैठी रहती हैं जब वे अपने पति के साथ उनके किसी मित्र के घर चली जाती हैं और वहां न वे किसी को जानती होती हैं न कोई उनको। अब अंग्रेजी-ज्ञान में अपन ठहरे नौसिखिऐ। पढ तो फिर भी लेते हैं, थोङी-बहुत समझ भी लेते हैं पर बोले कौन? सो राम-श्याम, दुआ-सलाम के बाद मूक दर्शक बन कर बैठ गऐ। मामाजी उनसे कुछ बात करते और फिर हमारे सामने अनुवादित कर देते। इसी तरह हमारी बातों को उन के सामने रख देते। मैं देख रहा था कि पति महाशय पूरी तरह अपनी पत्नी के आज्ञाकारी बने हुऐ था। छोटी-छोटी बातों के लिए भी उससे पूछ रहा था यहां तक कि मूतने के लिऐ भी! बीच-बीच में वो वार्तालाप का हिस्सा भी बन रहे था पर बेहद संयमित तरीके से। अन्यथा कमान तो पूरी तरह स्त्री के हाथ में ही थी। चाहे घर-परिवार की बातें हों कि चाहे समाज-व्यवहार की बातें हों या फिर कारोबार-कमाई की बातें। उसने बताया कि वो अपने घर की सबसे बङी बेटी है और अपनी घरेलू अर्थव्यवसथा की सूत्रधार है। उसकी छोटी बहन भी है जो उनके कोयले के कारोबार में उसका हाथ बंटाती है। कुछ वर्ष पहले उसकी शादी हुई थी और जैसा कि शेष उत्तर भारत में होता है उसके ठीक उलट वह एक आदमी को ब्याह कर अपने घर ले आई थी। अब वो आदमी यानि उसका पति हर वो काम करता था जो अपने यहां एक औरत की ड्यूटी होती है- चूल्हा-चौका, बर्तन-बच्चे सब कुछ। मेरे चाचा जी बिल्कुल मेरे घर के बराबर में रहते हैं। वे मामाजी से कहने लगे कि उनके घर भी चलकर चाय-पानी लिया जाऐ। वो औरत, मामाजी और पिताजी चाचा के घर चले गऐ और पतिदेव को हमारे पास छोङ दिया। वे बीस मिनट में लौट आऐ पर तब तक उन साहब की सांस अटकी रही। वो ऐसे बेचैन हो रहा था मानो हम बिल्ली हों और वो दूध। कमाल है यार! असुरक्षा का इतना भाव? लगा कि जैसे वहां के पुरूषों का हाल यहां की औरतों से भी बदतर हो। खैर खा-पीकर सो गऐ। फिर उन्हें कल दिल्ली भी घुमने जाना था। आराम भी जरूरी था।

सुबह नहा-धोकर खा-पीकर वो दिल्ली कूच कर गऐ और हम दोनों भाई अपने स्कूल। शाम को जब वे लौटे तो काफी खुश दिख रहे थे। बहुत सी मंहगी-महंगी खरीदारी भी की थी। औरत का तो कहना थी कि वो अपने बच्चों को दिल्ली में ही पढायेगी। फिर उस रात वे हमारे घर पर नहीं रुके बल्कि मेरे मामाजी के साथ उनके घर लौट गऐ। वे तो चले गऐ पर मेरी मां को पूरबिया रंग चढा गऐ। बेचारी कई दिनों तक बाबू जी पर हुक्म चलाने और धौंस जमाने की नाकाम कोशिश करती रही। शायद भूल गई थी कि यह अधिक सभ्य और अधिक विकसित उत्तर भारत है?

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